Tuesday, September 11, 2012

ये कैसी आज़ादी है!














ख्यालों को परवाज़ देने की
ये कैसी आज़ादी है
कि इनकी जंजीरों में रूह
क़ैद होकर रह जाती है
मैं अपने किरदार को
वक़्त की अदालत में
किसी बेबस मुवक्किल सा
कटघरे में खड़ा पाती हूँ
दिल और दिमाग में
बहस छिड़ जाती है
मेरा अक्स मेरे ही खिलाफ
गवाही देता है
और मन भटक जाता है
बचाव के सुबूत इक्हट्ठे करने को।

मुद्दा सही या गलत का नहीं है
जीत और हार का भी नहीं है
बात सिर्फ इतनी सी है 
की रूह क़ैद है    
ख्यालों को परवाज़ देने की
फिर ये कैसी आज़ादी है ...........!

~Saumya

Thursday, September 6, 2012

आजकल खुदा बेरोजगार है ...
















सुना है आजकल खुदा भी बेरोजगार है 
इंसानों ने दिल से निकलकर उसे 
दुकानों पर बिठा दिया है 

जब तक दिल की बगिया में था 
बागबानी करता था 
कभी रूह की मिट्टी जोत देता 
कभी मन की फसल सींच देता 
अच्छे-अच्छे ख्यालों के फूलों से 
दिल सजा रहता था हमेशा 
संवेदना की खाद लाकर भी डाल देता था अक्सर
और ज़िन्दगी महकती रहती थी ।
तनख्वाह के तौर पर 
प्यार के सिक्के ले जाता था।  

अब तो दुकानों के दफ्तर पर 
किसी साज-सज्जा के सामान जैसा 
बिना ज्यादा जगह लिए 
एक कोने में खड़ा रहता है बुत बनकर। 
रोज़ सवेरे उसे दुकानदार
अगरबत्ती के धुएँ से डराकर 
"फिंगर ऑन योर लिप्स"
की सजा सुनाकर
कारोबार में ब्यस्त हो जाते हैं।
और शाम होते ही उसके पास 
खैरात की नोटें फेंक देते हैं।    

गुज़र कर रहा है वो  
बचत की हुई दौलत से !
(पर कब तक?)

एक दिन बातों-बातों में पूछ लिया मैंने 
"इतना चढ़ावा आता है हर रोज़ तुम्हारे लिए 
तरह-तरह की मिठाइयाँ,मेवे 
सोने-चांदी के सिक्के
तुम तो इस्तेमाल करते नहीं 
तो फिर जरा आकर..... इसी में से
घर के बाहर बैठे भूखे-भिखारियों की 
कुछ मदद क्यूँ नहीं कर देते ?"

जवाब आया-
"रिश्वत के पैसों से 
अच्छे काम नहीं किया करते! "  

कोशिशें चल रही हैं उसे रोज़गार दिलाने की 
अहसासों के अखबार में .... इश्तहार दिया है
दिमाग से भी बातचीत जारी है ..................!  

~Saumya

Friday, August 31, 2012

गुब्बारे-वाला


अभी-अभी सड़क किनारे
रंग-बिरंगे दो गुब्बारे फूटें हैं।

मोटर गाड़ी में बैठा

तकरीबन चार साल का बच्चा
एक हाथ में लॉलीपॉप है जिसके
नयी यूनिफ़ॉर्म में अपनी जो बौहत फब रहा है
पहला गुब्बारा..... उसी का फूटा है।
माँ ने लाडले की फ़रमाइश पर
बड़े शौक से दिलाया रहा होगा
स्कूल गेट से बाहर निकलते वक़्त।
 पेचीदगियां तमाम हैं आसपास
कुछ न कुछ गलती से चुभ गया होगा।
बच्चा सुबक-सुबक कर रो रहा है
खेलने का सामान चाहिए उसको
माँ पुचकारते हुए चुप करा कर कहती है
अगले चौराहे पर दूसरा दिला देगी !

एक गुब्बारे-वाला है

उम्र उसकी लगभग छह बरस होगी
बच्चा कहूँ उसे या नहीं इस कश्मकश में हूँ ......बहरहाल
माथे पर तमाम सिलवटें हैं उसके
नंगे पाँव .....फटे पुराने कपड़ों में
रंगीन सपने बेचता है हर रोज़
छोटे तीन रुपये के ....बड़े पांच रुपये के।
दूसरा गुब्बारा उसी का फूटा है 
सूइयाँ .......दिल में चुभी हैं
और जो फूटा है ......वो दरअसल नसीब है
 रोया पर वो बिल्कुल नहीं है 
जानता है शायद   
आँखों के पानी से ना भूख की आग बुझेगी ना जीने की प्यास ।
आवाज़ सुनते ही दूर अब्बा ने जोर से फटकार लगायी
"कमबख्त! पूरे पाँच रुपये का नुक्सान कर दिया
एक और गया तो खैर नहीं"।
गुब्बारे-वाले ने हमउम्र बच्चों को
आइस-क्रीम खाते देखा
अपना दूसरा हाथ ख़ाली पेट पर रखा
फिर कुछ सोचकर जल्दी-जल्दी आगे बढ़ गया
"बाबु जी गुब्बारे ले लो ......दीदी जी गुब्बारे ले लो "

अगले चौराहे पर खिलौने और मिल जायेंगे बेशक

बावरा बचपन पर कहो कैसे मिलेगा?
अगले चौराहे पर होटों की हँसी भी हासिल हो जाएगी यकीनन
 मुँह के निवाले के लिए पर ..... ना जाने कितने शहर अभी और पार करने पड़ेंगे।
..........................................................................................................................
मोटर गाड़ी वाले बच्चे को जल्दी चुप कराओ कोई 
गुब्बारे-वाले की दबी चीखें शायद सुनाई दे जाएँ थोड़ी !

~Saumya

Tuesday, August 21, 2012

खुदा से मिल्ली कर ली है...














मैं ना अभी-अभी
झगड़ कर आ रही हूँ..
खुदा से !

वैसे तो वो 
कमाल का रंगसाज़ है 
घर आता है मुझसे मिलने 
तो अपने हाथ का बनाया
कुछ न कुछ लेकर
कभी एक कटोरी चाँदनी 
कभी गाने वाली चिड़िया !
और मैं उसके घर जाती हूँ 
तो माँ के बनाये 
ढेर सारे लड्डू लेकर 
(बौहत पसंद हैं उसे ! ) 

दोस्त है वो मेरा .........पक्का वाला
अपनी बड़ी सारी बातें........बताती हूँ उसे
मेरी फ़िक्र भी करता है...बौहत जियादा
मैं भी कोशिशें करती हूँ
उसकी खामोशियाँ पढने की....
उसका ख्याल रखने की..........

पता है   
पतंग उड़ाने का सलीका
वो ही मुझे सिखाता है
और ये कल्पना के पर भी
उसी ने लाकर दिए थे
क्षितिज पार जो बाज़ार है ना.......वहीं से

वो मेरे पेंसिल कलर अक्सर
मुझसे मांग कर ले जाता है
जब भी कोई नए फूल या तितलियाँ बनाने होते हैं....
आसमां के कैनवास पर ये जो रोज़ नयी-नयी
चित्रकारियाँ देखते हो ना
सब उसी की करामात है...........

वो मुझसे पहेलियाँ बुझाता है ...अजीब अजीब सी
मैं (बेवक़ूफ़)..........बता ही नहीं पाती!
बदले में मैं भी अपनी नज्में सुना सुनाकर
खूब तंग करती हूँ उसे
और जब हिसाब बराबर हो जाता है
दोनों ठहाके लगाकर ज़ोर-ज़ोर से हँसते हैं.......देर तलक !

हम दोनों साथ में बौहत सारे खेल खेलते हैं
वो मेरी गेंद,गुब्बारों से, मैं उसके चाँद-तारों से
कभी पकड़न-पकड़ाई, कभी छुपन-छुपाई ...........
अरे मैं तो भूल ही गयी
हाँ अभी-अभी उससे झगड़ के आ रही हूँ
पता है क्यूँ?

आज जब मैं ये
'ज़िन्दगी वाला खेल' खेल रही थी ना
उसने पिछली बार की तरह
इस बार भी हेरा-फेरी की ...........
और मेरी सारी गोटियाँ बिगाड़ दीं
भला कोई दोस्त ऐसा करता है क्या? नहीं ना ?
इसीलिए मैं -कट्टी कट्टी कट्टी बोलकर आ गयी !
गोटियों से छेड़खानी
मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती !

देखना शाम को आएगा
पूरी पल्टन के साथ
हमेशा की तरह मुझे मनाने के लिए
थैला भर बादल लेकर ...........
पर मैं भी जिद्दी हूँ......
इस बार नहीं मानूंगी....
और अपने पेंसिल कलर भी वापस ले लूँगी .............
हाँ नहीं तो !
गुस्सा हूँ मैं उससे ........बौहत जियादा !
(गन्दा !)

पर
माँ -पापा कहते हैं
सिर्फ एक खेल की वजह से
ऐसे नाराज़ नहीं होते
वो भी..... अपने सब से अच्छे दोस्त से !
उन्होंने पक्का वाला वादा किया है
कि खुदा को समझायेंगे.......मुझे ज्यादा सताया ना करे !

ठीक है......आने दो शाम को
पर आसानी से ना मानूंगी
पहले नखरे दिखाउंगी....थोड़ा चिढ़ाऊँगी
भैं -भैं कर रोऊँगी भी...... उसी के सामने
और फिर क्षितिज पार बाज़ार से अगर
'धरती वाला इत्र' लाकर देगा मुझे
तभी बात करुँगी .........
पर कहे दूंगी
की अगली बार से ऐसा किया
तो मैं कभी ना खेलूंगी 
ये........... 'ज़िन्दगी वाला खेल' .............!
...................................................................
...................................................................
आज हम दोनों ने बारिश में
खूब मटरगश्तियाँ कीं
झूलों में झूला, बूंदों से खेला
मैंने भुट्टा खाया , उसने बर्फ का गोला
मैंने उस पर फूल डाले, उसने मेरे बाल बिगाड़े
और फिर जाते जाते
मैंने उसके लिए कागज़ की कश्तियाँ बनायीं
और उसने....हमेशा की तरह कैनवास पर खींच दीं
सातों की सातों रंगों की खड़ियाँ !
........................................................................
हाँ जी
मैंने खुदा से मिल्ली कर ली है
और अपने पेंसिल कलर भी वापस नहीं लिए हैं ! :-)

~Saumya

Saturday, August 18, 2012

चाँद के दो टुकड़ों जैसे !



हम दोनों
चाँद के दो टुकड़ों जैसे !

तुम

नूर से लबरेज़
केसरिया कुर्ते में
बिगड़े बदमाश से दिखते
(पता है...........पर हो नहीं!! )
रोम-रोम रूमानी.....शरारतें करते
हुस्न पर अपने.... इतराते फिरते
लड़कियां सारी फ़िदा हैं जिस पर !

और मैं

सबकी नज़रों से परे
थोड़ी साँवली सी
जियादा बावली सी
हमेशा मुस्कुराती रहती
(गालों पर गुल* नज़र आते हैं क्या?)
तिश्नगी में.....रोश्नी की....या शायद तुम्हारी
पर जान लो...तुमसे ....कुछ कम नहीं !

सोचो तो .......क्या मंज़र होगा !

जब 'एक' होंगे.... हम दोनों
पूरी मैं...............पूरे तुम !

झीना-झीना जब

वक़्त का परदा उठेगा
कहीं तीज सजेगी
कहीं ईद मनेगी
आँखों से आतिशबाजियां होंगी
ख़ुशी में हमारी !

सोचो तो .......

हम दोनों... इक साथ... सबको
इतने कमाल लगेंगे
कि कोई देख-देख मुस्काएगा
कोई दुआओं में बसाएगा
कोई तस्वीरों में उतारेगा
कोई घर बुलाएगा ..........
तोहफ़े में हमें
बेशुमार तारे मिलेंगे
हम दोनों..... इक  साथ... सबको
इतने प्यारे लगेंगे !

सोचो तो

देखकर हमें
कोई संजीदा सी लड़की
नज़रों की ख़ालिस सियाही से
गुलाबी सी इक नज़्म लिख देगी
हमारे आसमां पर.....

और माँएं....... आदतन

अपनी उंगली के पोरों पर
आँखों से काजल निकालकर
हमें नज़र का..... काला टीका लगा देंगी !

सोचो तो.....तुम और मैं

चाँद के दो टुकड़ों जैसे !
मोहब्बत मुकम्मल होगी तब
जब 'एक' होंगे हम दोनों
पूरी मैं................पूरे तुम !
......................................................
......................................................
'एक' तो हैं ही ...हम दोनों ...पहले से
बस मोहब्बत के नूर की बात है .....
वक़्त गया है लाने.......खुदा के घर................
फिर दिल के चिराग...... हमेशा के लिए...... जला लेंगे !
.........................................................................................
~Saumya

गुल--> Dimples 

Tuesday, August 14, 2012

यादें -त्रिवेणी



खिलौने जैसे... हर कमरे में... फैलाकर रखती थी ....बचपन में 
बिखरी पड़ी हैं ..... यादें तुम्हारी ..... वैसे ही कोने-कोने

कोई डाँटे........तो  समेटूं !

~Saumya

Monday, July 30, 2012

इक पगली सी नज़्म!















वो प्यारी सी... पगली लड़की
चहकती .....फुदकती 
इस कमरे से उस कमरे 
आईने में तकती खुद को 
दिन में ....कुछ सौ दफे !
(ग़लतफ़हमी तो न हुई आपको?)
दरअसल  उसे 
अपनी पलकों के गिरने का 
इंतज़ार रहता है 
'उसकी' पलकों के ख्वाब 
सँवारने के लिए !

कोई गुंजाइश कहीं ....बाकी रह ना जाए 
लिहाज़ा...अब रोज़ का रिवाज़ है ...

शाम जैसे ही चंदा ... उसकी छत पर 
हौले से दस्तक देता है 
वो एक नज़र... निहार कर उसे 
मानो वो नहीं 'वो' हो )
घर के मंदिर को दौड़ जाती है. 
घी का इक दिया जलाकर 
रोज़ की इबादत के बाद 
मासूमियत के लिफ़ाफ़े में 
अपनी बातों की मिठास भरकर 
रब को.... चुपके से दे आती है ......
'वो' खुश रहे .....इतनी सी मुराद लेकर !
'उसकी' सालगिरह ,तीज-त्योहारों पर
पण्डित -जी से... 'उसके' नाम का 
इक रक्षा-सूत्र लेकर 
अपनी डायरी के उस पन्ने पर
सहेज कर रख देती है 
जिसपे.... 'उसका' नाम लिखा है ! 
लिफ़ाफ़े की साइज़ भी... उन दिनों ...तनिक बढ़ जाती है 
दुगुनी सिफारिशों के साथ !


पगली
एक भी दुआ
जाया नहीं करती
अपने ऊपर ...
बस चले तो 
अपने हिस्से का आशीर्वाद भी
'उसके' नाम लिख दे !
यहाँ तलक सोच रखा है 
कि जो तारा बन गयी पहले अगर 
तो 'उसकी' खिड़की पर जाकर.....
फिर से टूट जायेगी ........................
( "मौत भी फ़कत..... मुकम्मल हो जायेगी !" )

कुछ और हो ना हो
दुआओं को तो हक़ है ना कि
किसी के लिए भी.... मांग ली जाएं
बिना कोई हिसाब लगाए !

इससे पाक तरीका है क्या कोई और 
वो कुछ ...एकतरफ़ा निभाने का?
(मुस्कुराते हुए ....बिना कुछ खोए ?)

फिर से.... ग़लतफ़हमी तो ना हुई आपको ?
वो खुश है .........और 'वो'......... बेखबर !
.......................................................................

एक शेर भी अर्ज़ है (मान लीजिये 'उसकी' कलम से )

"यूंही तो नहीं मुस्कुराते रहते हम बेवजह हर रोज़ 
किसी की दुआओं का .....असर मालूम देता है । "

~Saumya

Wednesday, July 25, 2012

आओ थोड़ा खुदा हो जाएँ




















आओ थोड़ा खुदा हो जाएँ
मिलकर अलग सी बारिश बनाएं 
मन के बादलों से 
प्यार-मुहब्बत के मोती छलकाएं 
तिनका-तिनका खूब भिगायें 
उम्मीद का सूरज उगाकर 
ढेर सारे इन्द्रधनुष सजाएं 
आओ थोड़ा खुदा हो जाएँ ।

आओ थोड़ा खुदा हो जाएँ
तकदीर की लकीरें बनाएं 
उस बस्ती में जहाँ बच्चे 
काम पर जाते हैं 
उनके हाथों में कलम पकड़ाएँ 
आँखों में सपने बुनकर 
कंचों से ज़ेबें भरकर  
कागज़ की कश्ती के केवट बन जाएं 
आओ थोड़ा खुदा हो जाएँ ।

आओ थोड़ा खुदा हो जाएँ
हम-तुम सन्ता-क्लॉस बन जाएं 
गली-मोहल्ले में अपने-अपने
खुशियों के पैकिट बाँट आयें 
हारे को हौसला दिला दें 
रोती अँखियों को हँसा दें
दरकते बाजुओं को गले लगायें 
गुलशन-ए-ज़िन्दगी सींच आयें 
आओ थोड़ा खुदा हो जाएँ । 

आओ थोड़ा खुदा हो जाएँ
नेकी हो मज़हब हमारा
सच के लिए हम लड़ जाएँ
देर कितनी भी हो जाए
अँधेरा मगर होने ना पाए
मोमबत्तियां कब तक जलेंगी
रूह में अपनी रौशनी लायें
आओ थोड़ा खुदा हो जाएँ । 

आओ थोड़ा खुदा हो जाएँ
कण-कण में जैसे वो बसा है
हर दिल में हम भी घर जाएँ
'एक' जैसे वो खड़ा है
'एक' हम भी हो जाएँ
ज़मीं आसमां का फ़र्क छोडें 
जहाँ जाएँ जन्नत बनाएं
आओ थोड़ा खुदा हो जाएँ ।  
...........................................

थोड़े तुम शिवा हो जाओ
थोड़े हम दुर्गा हो जाएँ
आओ थोड़ा खुदा हो जाएँ ।

~Saumya

Tuesday, July 24, 2012

मेरी नज्में



















(1)

मेरी नज्में 
कुछ कुछ मुझ जैसी हैं 
सादा-दिल 
चुप-चुप सी 
जियादा कुछ नहीं कहतीं 

काश मैं भी कुछ कुछ 
अपनी नज्मों की तरह होती 
तुम पढ़ लेते मुझे 
बिना मेरे कहे !

(2)

जैसे
अपनी नज्मों को 
कैसे भी शुरू करूँ 
पर इक  खूबसूरत से मोड़ पर ही 
लाकर ...छोडती हूँ उसे 

ऐ ज़िन्दगी 
अन्जाने में 
तुझसे भी 
कुछ ऐसी ही उम्मीद 
लगा बैठी हूँ मैं !

(3)

बातें 
जो मैं करती हूँ खुद से 
अकेले में 
चाय की चुस्कियां लेते वक़्त 
ढलते सूरज को निहारते हुए 
तारों को गिनते-गिनते 
या रात में सोने से पहले 
वो सबसे खूबसूरत 
नज्में है मेरी ...
दिल की सबसे प्यारी बातें 
साँस लेती हूँ 
उन्ही की महक में 

दफ़न ना करुँगी 
किसी कागज़ी ज़मीन के नीचे 
वो नज्में .....जो मेरी ज़िन्दगी सी हैं....

~Saumya

Thursday, July 19, 2012

और मिल गयी मैं मुझको !















पता नहीं कब कहाँ मैं
मुझसे बिछड़ गयी हूँ
नहीं...किसी भीड़ में नहीं थी
फिर भी खो गयी हूँ !

पहले ढूँढा खुद को मैंने

उस तारीफों से भरे संदूक में
जो प्यार से कभी मिली थीं मुझे ....
बोहत संभालकर रखी थी मैंने 
सारी की सारी ....यादों के लॉकर में 
कुछ झूठी थीं...कुछ सच्ची थीं
छोटी-छोटी ही सही... पर अच्छी थीं
मीठी -मीठी उन सौगातों में 
सोचा शायद थोड़ी सी मिल जाऊं खुद को 
ठीक से ढूँढा मैंने...
पर नहीं मिली मैं मुझको..................

फिर सोचा खोजूं खुद को

कविताओं में...नज्मों में
जो टांक दी थी मैंने....कागज़ के सीने में  ....
शायद किसी शब्दों की इमारत तले
जान बूझकर....... दब गयी हूँ ?
या फिर भूल आई  हूँ खुद को
गलती से ......किसी अधूरी ग़ज़ल में ?
या शायद बाँध दिया हो रूह को अपनी 
किसी रूपक में .....बेवजह ही ...बावली हूँ ना !
बोहत  ढूँढा मैंने खुद को 
लफ्ज़ दर लफ्ज़ ...खंगोल डाला 
ज़ज्बातों के समुंदर को 
पर नहीं मिली मैं मुझको............ 

मेरी परछाईं भी तो लापता थी 

रपट दर्ज थी उसकी भी दिल-ओ-दिमाग में 
वर्ना उसी से पूछ लेती .....
फिर ख्याल आया 
किसी की आँखों में ढूँढूं 
शायद वहीँ महफूज़ होंगी 
पर उतनी पास..... कोई कहाँ था 
परेशां होकर ......दौड़कर फिर गयी 
आईने के पास....सोचा
वहां तो ज़रूर पाउंगी खुद को
पर ये क्या …आईना भी खाली था ……
मेरे भीतर की तरह ...इकदम खोखला .... 
और फिर नहीं मिली मैं मुझको ......... 

कबसे....  ढूंढ रही हूँ खुद को

हाथ की हथेलियों में 
ज़िन्दगी की पहेलियों में  
बीते हुए कल के अंधेरों में  
आने वाले कल के कोहरों में  
सब से तो पूछ लिया 
सब जगह तो देख लिया …. 
नहीं मिल रही ……मैं मुझको ………… 

किसी ने बताया था मुझे … 

मेरा पुराना पता ……
इक छोटे से सपने के
बड़े से घरौंदे में रहती थी मैं 
ख़ुशी -ख़ुशी …….तितलियों जैसी .. 
अब वहां कोई दूसरा किरायेदार रहता है …. 

घर लौटी जब थक हारकर 

रोई खूब मैं फूंट-फूंट कर …
बोहत देर बाद ....अचानक किसी ने आकर
(खुदा ही होगा ) 
आँखों पर कोई इक चश्मा पहनाया 
पलकों पर जमी ....धूल हटाया
और दिखाया …………. 
कि किसी कोने में जब 
बिखरी-बिखरी सी पड़ी थी मैं 
तो माँ-पापा ने कैसे 
टुकड़े -टुकड़े तिनका -तिनका जोड़कर मुझे
अपनी दुआओं में .......सहेज कर......... रख लिया था ..... 

पापा के अक्स की छाँव तले 

माँ के आँचल में लिपटी 
कितने सुकून से तो थी मैं
दुनिया की सबसे सलामत जगह पर ...
ना आँखों में डर था,ना दिल में बेचैनी  
लगा की कहीं खोयी ही नहीं थी मैं कभी
हमेशा से...... वहीँ तो थी..... 
माँ-पापा की दुआओं में............महफूज़! 

~Saumya

Thursday, July 12, 2012

बूंदों की बारात ...















अभी थोड़ी देर पहले
दूर बादलों के गाँव से
छोटी-छोटी मनचली
बूंदों की बारात
आई थी मेरे शहर में
पाँवों में घुंघरू थे जो
रिमझिम-रिमझिम बजते थे
सिर पर ओढ़नी थी
मखमली फिजाओं की
रोम-रोम खिला सा था
हर मोती निरा सा था
निमंत्रण भेजा था मैंने परिंदों के हाथ
बूँदें आयीं थीं सज-सँवर के इस बार
अभी थोड़ी देर पहले ………………!

बोगनविलीया की छरहरी
नाज़ुक पंखुड़ियां
भीगी भीगी सी
अभी भी शर्मा रही हैं 
हवाओं के तौलिये से हौले हौले 
जुल्फें अपनी सुखा रही हैं …...............!

और वो सामने वाला

फुर्तीला …..अमरुद का पेड़
अपनी टहनियां आकाश में
ऐसे लहरा रहा है
मानो वो जो बगल वाली
फूलों की बेला है
उसे ही चुपके चुपके रिझा रहा है ………!

परिंदों की इक टोली
मेरी छत के ऊपर वाले आसमान में
प्रेम राग गा रही है
और तितलियों की इक मण्डली यहाँ नीचे
आहिस्ता आहिस्ता  गुनगुना रही है...........!

और वहां दूर वो बेहया
आवारा चाँद का टुकड़ा
बादलों की ओट से कैसे झाँक रहा है
नहा धोकर सुनहरी पोशाक में अपनी
धरा को देख देख इठला रहा है ..................!

थोड़ी सकुचाई सी
थोड़ी इतराई सी
धरती ...की साँसों में ये जो
रूमानियत का इत्र है 
तिनका तिनका ये कायनात को 
महका रहा है..................................... !

~Saumya

Wednesday, June 13, 2012

आँखों से थोड़ी बारिश हो..











सूखे हुए बेजान ख्वाब सारे
दफन हैं रूह की..... कमज़ोर बुनियाद पर 
......................................................
आँखों से थोड़ी बारिश  हो
तो दिल को यकीं आये
कि पल्कों की डाली पर
इक नया ख्वाब 
फिर 'हरा' होगा कभी.....................

~Saumya

Sunday, June 10, 2012

ये ज़िन्दगी क्यूँ .…फिर भी अच्छी लगती है ?




बात  बात  पर  देखो  ना …हर  पल   झगड़ती  है 
ये  ज़िन्दगी  क्यूँ .....…फिर  भी  अच्छी  लगती  है ?

कभी  बिना  गुनाह  किये  ही ..............…सज़ा  सुनाती  है 
  मासूम  किसी  गुड़िया को .......... बेवजह  रुलाती  है 
हर  साँस में  रूह ….......... कितनी  बार  बिलखती  है 
ये  ज़िन्दगी  क्यूँ  ........…फिर  भी  अच्छी  लगती  है ?

कभी  सपने  दिखाकर …............सपने  तोड़  देती  है 
  हवाओं  का  रुख   ही............  उल्टा  मोड़  देती  है 
उठ  कर  गिरना .…कभी  गिर  कर  उठना….लुढ़कती -संभलती है 
ये  ज़िन्दगी  क्यूँ  ……………..फिर  भी  अच्छी  लगती  है ?

जिसे  शिद्दत  से  चाहो ….........…वो  कहाँ  बक्श्ती है 
जो  दुआओं  में  मांगो  .........…वो  कहाँ  सुनती  है 
दिल  की  प्यारी  बातों को ......…ये  कहाँ  समझती  है 
ये  ज़िन्दगी  क्यूँ ……………. फिर  भी  अच्छी  लगती  है ?

हँसाती  है.......रुलाती  है......बनाती  है.......मिटाती  है
सिखाती  है.........दुलराती  है.......गिराती  है.........भगाती  है
हाथ  की  रेखाओं  पर  बस..............चलती  जाती  है.....

इस  कोने  कभी.........कभी  उस  कोने  सिसकती  है 
ये  ज़िन्दगी  क्यूँ...............फिर  भी  अच्छी  लगती  है? 

~Saumya

Wednesday, June 6, 2012

मानो चाँद ना हो...














कल चाँद फलक पर पूरा था
वैसा ही ....छैल -छबीला आवारा 
पहले तो बादलों के परदे में छिप -छिप कर
तंग करता रहा मुझे
फिर थक कर आकर बैठ गया बेहया
खिड़की पर मेरी !

सारी रात 
बिना पलक झपकाय 
एकटक........निहारती रही उसे मैं 
मानो चाँद ना हो
तुम्हारी ही कोई पुरानी
मुस्कुराती हुई....तस्वीर हो....... :)

Sunday, June 3, 2012

जो कहना चाहा था ..........














साँसों  के  उलझे  धागों  को 
थोड़ा  सुलझाया 
जज्बातों  के  समुंदर  को 
थोड़ा  टटोला 
एहसांसों पर  पड़ी 
धूल की  परत  भी  साफ़  की
बिखरे हुए  अल्फाजों को 
इक्हठा  किया 
थोड़ा  इधर …थोडा  उधर  से 
सूखी  कलम   में 
नयी  स्याही  भी  डाली 
और  एक   कोरा  कागज़  लेकर 
बैठ  गयी ……एकांत  में 
अकेले ……………तारों  से  मुंह  मोड़के………………
घण्टों  बाद  एहसास  हुआ  ……
आँसू की  एक  बूँद  छलक  कर 
पन्ने  पर  कहीं  फ़ैल  गयी  थी 
और  जो  कहना  चाहा था 
वो  हमेशा  की  तरह ……..…दिल  में  ही  रह  गया  !

~Saumya