वो प्यारी सी... पगली लड़की
चहकती .....फुदकती
इस कमरे से उस कमरे
आईने में तकती खुद को
दिन में ....कुछ सौ दफे !
(ग़लतफ़हमी तो न हुई आपको?)
(ग़लतफ़हमी तो न हुई आपको?)
दरअसल उसे
अपनी पलकों के गिरने का
इंतज़ार रहता है
अपनी पलकों के गिरने का
इंतज़ार रहता है
'उसकी' पलकों के ख्वाब
सँवारने के लिए !
सँवारने के लिए !
कोई गुंजाइश कहीं ....बाकी रह ना जाए
लिहाज़ा...अब रोज़ का रिवाज़ है ...
शाम जैसे ही चंदा ... उसकी छत पर
हौले से दस्तक देता है
वो एक नज़र... निहार कर उसे
( मानो वो नहीं 'वो' हो )
घर के मंदिर को दौड़ जाती है.
घी का इक दिया जलाकर
रोज़ की इबादत के बाद
मासूमियत के लिफ़ाफ़े में
अपनी बातों की मिठास भरकर
रब को.... चुपके से दे आती है ......
'वो' खुश रहे .....इतनी सी मुराद लेकर !
'उसकी' सालगिरह ,तीज-त्योहारों पर
पण्डित -जी से... 'उसके' नाम का
इक रक्षा-सूत्र लेकर
अपनी डायरी के उस पन्ने पर
सहेज कर रख देती है
जिसपे.... 'उसका' नाम लिखा है !
लिफ़ाफ़े की साइज़ भी... उन दिनों ...तनिक बढ़ जाती है
दुगुनी सिफारिशों के साथ !
शाम जैसे ही चंदा ... उसकी छत पर
हौले से दस्तक देता है
वो एक नज़र... निहार कर उसे
( मानो वो नहीं 'वो' हो )
घर के मंदिर को दौड़ जाती है.
घी का इक दिया जलाकर
रोज़ की इबादत के बाद
मासूमियत के लिफ़ाफ़े में
अपनी बातों की मिठास भरकर
रब को.... चुपके से दे आती है ......
'वो' खुश रहे .....इतनी सी मुराद लेकर !
'उसकी' सालगिरह ,तीज-त्योहारों पर
पण्डित -जी से... 'उसके' नाम का
इक रक्षा-सूत्र लेकर
अपनी डायरी के उस पन्ने पर
सहेज कर रख देती है
जिसपे.... 'उसका' नाम लिखा है !
लिफ़ाफ़े की साइज़ भी... उन दिनों ...तनिक बढ़ जाती है
दुगुनी सिफारिशों के साथ !
पगली
एक भी दुआ
जाया नहीं करती
अपने ऊपर ...
बस चले तो
अपने हिस्से का आशीर्वाद भी
'उसके' नाम लिख दे !
यहाँ तलक सोच रखा है
कि जो तारा बन गयी पहले अगर
तो 'उसकी' खिड़की पर जाकर.....
फिर से टूट जायेगी ........................
( "मौत भी फ़कत..... मुकम्मल हो जायेगी !" )
एक भी दुआ
जाया नहीं करती
अपने ऊपर ...
बस चले तो
अपने हिस्से का आशीर्वाद भी
'उसके' नाम लिख दे !
यहाँ तलक सोच रखा है
कि जो तारा बन गयी पहले अगर
तो 'उसकी' खिड़की पर जाकर.....
फिर से टूट जायेगी ........................
( "मौत भी फ़कत..... मुकम्मल हो जायेगी !" )
कुछ और हो ना हो
दुआओं को तो हक़ है ना कि
किसी के लिए भी.... मांग ली जाएं
बिना कोई हिसाब लगाए !
इससे पाक तरीका है क्या कोई और
वो कुछ ...एकतरफ़ा निभाने का?
(मुस्कुराते हुए ....बिना कुछ खोए ?)
फिर से.... ग़लतफ़हमी तो ना हुई आपको ?
वो खुश है .........और 'वो'......... बेखबर !
.......................................................................
एक शेर भी अर्ज़ है (मान लीजिये 'उसकी' कलम से )
"यूंही तो नहीं मुस्कुराते रहते हम बेवजह हर रोज़
किसी की दुआओं का .....असर मालूम देता है । "
~Saumya