कविता वो नहीं
जो मैं संवेगहीन स्याही की रिक्तता में घोल देती हूँ
और किसी सीले हुए से कोरे कागज़ पर उकेर देती हूँ
उसका आवेग तो शब्दों के छिछले सागर तक ही गहरा होता है,
हर आवेश में ज़माने के दस्तूरों का पहरा होता है |
कविता तो वो है
जो मैं मन ही मन बुदबुदाती हूँ
जो रिसती है मेरी रगों में,
मेरी सांसों के तार जोड़ती है
मुझसे मुझको मिलवाती है ….
लोग कहते हैं मैं बोलती कम हूँ ….
कैसे कहूँ ये कविता हर पल मुझसे बतियाती है|
डरती हूँ ………….
कि जब ये शरीर जलेगा ..
तो मेरी राख पर
हर अनकही नज्म
उभर ना आये
परत ………….
दर परत ……...
दर परत ……...
और अश्कों का सैलाब इस कदर ना उमड़ने लगे
कि जो ना मायूस थे मेरे जाने पर ,वो भी बिलखने लगें
इक ओर मेरी रूह को दुआएं नसीब हों ………..
दूजी ओर मेरी राख को साहूकार मिलने लगें ……
मोहसिन हमारी राख को तुम तोलना ज़रूर
हम जानना चाहेंगे हमारे ग़मों का बोझ कितना था ………….~सौम्या
saumya bahut badiya rachna soj hai aapki kalam mein soch mein .....shala slaamat rahe
ReplyDeletebehad behat khoobsoorat or bhavuk man ki kavita ...htts of for u
ReplyDeletethanku manjeet ji...thanks vandana ji......i m glad u read it and liked it....its gud 2 be appreciated by those who themselves write so gud...thnx again.
ReplyDeletenice.....well done.....new topic, well executed
ReplyDeletethank you alok...
ReplyDeletenice work
ReplyDeletehttp://shabd-baavala.blogspot.com/
thanks ananya
ReplyDeletehamari raakh ko tum tolna jaroor, hum janna chahenge hamare gamon ka bojh kitna tha...
ReplyDeletevery touching...very innocent...
thanks tapesh ji...
ReplyDeletegambheer rachna...touch karti hai..
ReplyDeleteफिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई
ReplyDeletethank you saurabh,
ReplyDeletethanks sanjay ji...
The last five lines are par excellence!
ReplyDelete"हम जानना चाहेंगे हमारे ग़मों का बोझ कितना था …………."
ReplyDeleteकाश ऐसी अभिव्यक्ति कि ताक़त रखने वाले को गम ही ना मिलें!! पर शायद, कहीं न कहीं कुछ गम ही ऐसी अभिव्यक्ति की शुरुआत होते है..
अद्भुत!!
आज आपके ब्लॉग पर शायद पहलीबार ही आया हूँ, नज्म देखे.., कविताये देखे, भावनाए देखी, उसमे तैर रहे बेपरवाह, गोते लगते, तैरते हिंदी - उर्दू शब्दों कि अठखेलियाँ भी देखी.......इतना कुछ देखा कि सारे दृश्य तिरोहित हो गए मै खुद उसमे डूब गया....लेकिन चेतना कब तक मौन रहती, वर्तमान में वापस भी आया परन्तु लगता है कुछ्ह छूट गया है, जो गहराईयों से मोती लाने वाला था ला नहीं पाया, कारण नहीं जानता हूँ, शायद खो जाने का भय था, या उन्हें गन्दा हो जाने का यह भी तय नहीं कर पा रहा हूँ फिर गोते लगाने का मन कर रहा है , मोतियों को निहारने का मन कर रहा है, मेरे हिस्से शायद हलवे ही खुशबू ही है , माँ कि तरह ..सच कहू इतना भव प्रधान रचनाये पहली बार देख रहा हूँ. आप यह भी महसूस कर रहे होंगे शब्द लडखडा रहे परन्तु अंगुलिया रूक नहीं रही रुकेंगी भी नहीं थकने तक यह तो मैं हूँ जो समय से बाँधा हूँ .......
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