एक नन्ही सी बूँद
जो उठी थी उर से
अथाह सागर के ,
का स्वाद चखा था मैंने
तनिक नमकीन थी|
उड़ चली थी
कुछ सहमी हुई सी ,
कुछ बहकी हुई सी ,
सूरज के प्यासे अधरों से
अपनी नमी छिपाती हुई ,
मलिन हुई फिजाओं से
अपनी निवेदिता बचाती हुई ,
तलाश रही थी
अपना खोया अस्तित्व |
देखो गगन को छूकर
उसके गलियारों में रंग भरकर
फिर वापस आई है......
तृषित कंठों को तर करने ,
बंजर धरा की गोद भरने ,
हथेलियों पर मृदंग करती ,
संग पर नए छंद लिखती |
फिर चखा स्वाद मैंने …….
और आश्चर्य हुआ इस नयी अनुभूति पर
की बूँद अब मीठी हो चुकी थी |
बदलता तो है मनुज भी
शिखर को छूकर
फिर बदलाव मनुज में ही क्यूँ
विपरीत होता है …………………
~सौम्या
~सौम्या
Great .......
ReplyDeleteNice thought !!!!
bahut acche....
ReplyDeletewaaaw bahut sundar ....very nice thoutght...
ReplyDeletethank you all.....
ReplyDeletewow...superb
ReplyDeletei have never thought of such a contrasting change between drops and human being. i must say saumya you are very thoughtful and creative.
the poem is really good.
i loved it!!!
BEAUTIFUL... and so very true.
ReplyDeletethank you shreya !
ReplyDeletethanks Ambuj!...It's so very kind of you to comment on mine older posts.
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