सुना है आजकल खुदा भी बेरोजगार है
इंसानों ने दिल से निकलकर उसे
जब तक दिल की बगिया में था
कभी रूह की मिट्टी जोत देता
अच्छे-अच्छे ख्यालों के फूलों से
संवेदना की खाद लाकर भी डाल देता था अक्सर
और ज़िन्दगी महकती रहती थी ।
तनख्वाह के तौर पर
प्यार के सिक्के ले जाता था।
अब तो दुकानों के दफ्तर पर
किसी साज-सज्जा के सामान जैसा
एक कोने में खड़ा रहता है बुत बनकर।
अगरबत्ती के धुएँ से डराकर
की सजा सुनाकर
कारोबार में ब्यस्त हो जाते हैं।
और शाम होते ही उसके पास
खैरात की नोटें फेंक देते हैं।
गुज़र कर रहा है वो
बचत की हुई दौलत से !
(पर कब तक?)
एक दिन बातों-बातों में पूछ लिया मैंने
"इतना चढ़ावा आता है हर रोज़ तुम्हारे लिए
सोने-चांदी के सिक्के
तुम तो इस्तेमाल करते नहीं
तो फिर जरा आकर..... इसी में से
घर के बाहर बैठे भूखे-भिखारियों की
कुछ मदद क्यूँ नहीं कर देते ?"
अच्छे काम नहीं किया करते! "
कोशिशें चल रही हैं उसे रोज़गार दिलाने की
अहसासों के अखबार में .... इश्तहार दिया है
दिमाग से भी बातचीत जारी है ..................!