Friday, May 22, 2009

मंजिल का सफर....


है फलक को जिद अगर,
बिजलियाँ गिराने की,
तो है हमें भी जिद ,
वहीं आशियाँ बनाने की ,
अश्क आंखों में आए जाते हैं ,
फिर भी हम मुस्कुराए जाते हैं।
गुलशन की आबरू के लिए ,
आशियाँ ख़ुद ही लुटाये जाते हैं।


है सूरज को जिद अगर,
आग बरसाने की ,
तो है हमें भी जिद ,
तपिश में रूह सुलगाने की ,
पसीने चेहरे पर आए जाते हैं ,
कदम,हर कदम हम बढाये जाते हैं।
सूरज की आबरू के लिए,
देह ख़ुद की ही जलाए जाते हैं।


है लहरों को जिद अगर,
किनारों से टकराने की,
तो है हमें भी जिद ,
समंदर पार जाने की ,
आंधी-तूफ़ान आए जाते हैं,
कश्ती हम अपनी बढाये जाते हैं
लहरों की आबरू के लिए,
डुबकियां समंदर में लगाए जाते हैं।


है नियति को जिद अगर,
राह हमारी रोकने की,
तो है हमें भी जिद ,
हर चट्टान तोड़ने की,
अंगारे पाँव को जलाए जाते हैं ,
हर सितम दिल में हम दबाये जातें है।
नियति की आबरू के लिए,
दोस्ती काँटों से निभाए जाते हैं।


गर जानना चाहते हो मेरी उड़ान,
मेरी मंजिल ,मेरे अरमान,
तो ऊंचा करो,ऊंचा करो उस आसमान को,
लहरों के उफान को ,
बढ़ा दो सूरज की गर्मी,
मिटा दो भाग्य की नरमी,
शायद मेरी उड़ान तुम देख पाओगे,
फिर भी मेरा गंतव्य ना तुम भेद पाओगे।

अभी तो सफर का इरादा किया है,
ख़ुद से ही लड़ने का वादा किया है,
अरसों बाद आंखों ने यह हौसला दिखाया है,
जिंदगी ने आज हमें मरना सिखाया है!!!

~सौम्या 




1 comment:

Thankyou for reading...:)