अपना आगार सँवारने के लिए,
तुम मेरा आशियाना क्यूँ तोड़ती हो?
कल्प-कल्प से हर कण जुटाती मैं,
तुम पल भर में ही उधेड़ देती हो।
क्यूँ,क्यूँ करती हो तुम ऐसा ?
क्या कृत्य तुम्हारा नही यह नृशंस जैसा?
प्रश्न यह कुछ अप्रत्याशित था,
इक मूक के मर्म का साक्षी था।
मैंने उत्तर दिया,
मैं तो मात्र अपना घर बुहारती हूँ,
दीवारों से लिपटे जालों को हटाती हूँ।
प्रतिउत्तर मिला की तुम,
दृग में लगे जालों को,
दिल में लगे जालों को,
क्यूँ नही हटाती ?
क्यूँ नही मिटाती ?
मैंने तो तुम्हारे आलय को देवालय सा जाना था ,
नगण्य से उस कोने को,अपना संसार माना था।
न पता था तुम्हारे दिल की दीवारें इस कदर कमजोर हैं ,
कि मेरे आशियाने का भार सह ना पाएँगी,
संकीर्णता तुम्हारे मन की इतनी पुरजोर है,
कि अनिकेतन को सहारा कभी दे ही ना पाएँगी।
मैं नीरव निस्पंद सी देखती रही,
अपनी अनभिज्ञता को कोसती रही।
मकड़ी ने कहा......
जाओ अपनी सीरत को सवारों,
अपने अंतरतम को बुहारो,
पाथय प्रेम का स्वीकारो,
फिर क्या पता ,
मैं अपना ठिकाना बदल लूँ,
कहीं किसी ऐसे महल में जहाँ,
दृगों में जाले अभी भी लगे हुए हैं.......
दिलों में जाले अभी भी लगे हुए हैं.......
आज मैं फिर से जाले हटा रही हूँ...
फर्क इतना है की जगह बदल गई है………
तुम मेरा आशियाना क्यूँ तोड़ती हो?
कल्प-कल्प से हर कण जुटाती मैं,
तुम पल भर में ही उधेड़ देती हो।
क्यूँ,क्यूँ करती हो तुम ऐसा ?
क्या कृत्य तुम्हारा नही यह नृशंस जैसा?
प्रश्न यह कुछ अप्रत्याशित था,
इक मूक के मर्म का साक्षी था।
मैंने उत्तर दिया,
मैं तो मात्र अपना घर बुहारती हूँ,
दीवारों से लिपटे जालों को हटाती हूँ।
प्रतिउत्तर मिला की तुम,
दृग में लगे जालों को,
दिल में लगे जालों को,
क्यूँ नही हटाती ?
क्यूँ नही मिटाती ?
मैंने तो तुम्हारे आलय को देवालय सा जाना था ,
नगण्य से उस कोने को,अपना संसार माना था।
न पता था तुम्हारे दिल की दीवारें इस कदर कमजोर हैं ,
कि मेरे आशियाने का भार सह ना पाएँगी,
संकीर्णता तुम्हारे मन की इतनी पुरजोर है,
कि अनिकेतन को सहारा कभी दे ही ना पाएँगी।
मैं नीरव निस्पंद सी देखती रही,
अपनी अनभिज्ञता को कोसती रही।
मकड़ी ने कहा......
जाओ अपनी सीरत को सवारों,
अपने अंतरतम को बुहारो,
पाथय प्रेम का स्वीकारो,
फिर क्या पता ,
मैं अपना ठिकाना बदल लूँ,
कहीं किसी ऐसे महल में जहाँ,
दृगों में जाले अभी भी लगे हुए हैं.......
दिलों में जाले अभी भी लगे हुए हैं.......
आज मैं फिर से जाले हटा रही हूँ...
फर्क इतना है की जगह बदल गई है………
मायने बदल गए हैं.......
~सौम्या
~सौम्या
hmmmm... kinda ok. u can write much better
ReplyDeleteu gave a new dimension to 'makdi', lovely
ReplyDeletea gud comment on our inner souls, we the selfish humans......
ReplyDeletewe jst care of our own not others...
lovely too see u love and respect insect (makdi) so much.......
ReplyDeletethnx to all...
ReplyDeletebahut behtareen.......
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