वक़्त की रफ़्तार से कहीं आगे
आकाश की परिधि से कहीं दूर
एक छोटा सा नाजुक सा ख्वाब
सहेज कर रखा है मैंने
खुदा से भी छुपाकर !
रोज़ सँवारती हूँ उसे
आहिस्ता-आहिस्ता
अपनी 'सोच' के आँचल में
कल्पना की सीपियों से!
कल्पना की सीपियों से!
पता है
रोज़ सवेरे-सवेरे
सूरज की पहली किरण से पहले
ये ख्वाब
नींदों में आ जाता है
और 'दिन'
अच्छा गुजर जाता है !
हकीकत और ख्वाब का
ये साँझा रिश्ता देख
'जिंदगी' भी हौले से
मुस्कुरा देती है!
(शायद मेरी मासूमियत पर!)
काश की कुछएक ऐसे ही ख्वाब
कभी सच ना हों
और खूबसूरती-ऐ-जिंदगानी
यूँही बनी रहे!
~Saumya