Tuesday, September 11, 2012

ये कैसी आज़ादी है!














ख्यालों को परवाज़ देने की
ये कैसी आज़ादी है
कि इनकी जंजीरों में रूह
क़ैद होकर रह जाती है
मैं अपने किरदार को
वक़्त की अदालत में
किसी बेबस मुवक्किल सा
कटघरे में खड़ा पाती हूँ
दिल और दिमाग में
बहस छिड़ जाती है
मेरा अक्स मेरे ही खिलाफ
गवाही देता है
और मन भटक जाता है
बचाव के सुबूत इक्हट्ठे करने को।

मुद्दा सही या गलत का नहीं है
जीत और हार का भी नहीं है
बात सिर्फ इतनी सी है 
की रूह क़ैद है    
ख्यालों को परवाज़ देने की
फिर ये कैसी आज़ादी है ...........!

~Saumya

Thursday, September 6, 2012

आजकल खुदा बेरोजगार है ...
















सुना है आजकल खुदा भी बेरोजगार है 
इंसानों ने दिल से निकलकर उसे 
दुकानों पर बिठा दिया है 

जब तक दिल की बगिया में था 
बागबानी करता था 
कभी रूह की मिट्टी जोत देता 
कभी मन की फसल सींच देता 
अच्छे-अच्छे ख्यालों के फूलों से 
दिल सजा रहता था हमेशा 
संवेदना की खाद लाकर भी डाल देता था अक्सर
और ज़िन्दगी महकती रहती थी ।
तनख्वाह के तौर पर 
प्यार के सिक्के ले जाता था।  

अब तो दुकानों के दफ्तर पर 
किसी साज-सज्जा के सामान जैसा 
बिना ज्यादा जगह लिए 
एक कोने में खड़ा रहता है बुत बनकर। 
रोज़ सवेरे उसे दुकानदार
अगरबत्ती के धुएँ से डराकर 
"फिंगर ऑन योर लिप्स"
की सजा सुनाकर
कारोबार में ब्यस्त हो जाते हैं।
और शाम होते ही उसके पास 
खैरात की नोटें फेंक देते हैं।    

गुज़र कर रहा है वो  
बचत की हुई दौलत से !
(पर कब तक?)

एक दिन बातों-बातों में पूछ लिया मैंने 
"इतना चढ़ावा आता है हर रोज़ तुम्हारे लिए 
तरह-तरह की मिठाइयाँ,मेवे 
सोने-चांदी के सिक्के
तुम तो इस्तेमाल करते नहीं 
तो फिर जरा आकर..... इसी में से
घर के बाहर बैठे भूखे-भिखारियों की 
कुछ मदद क्यूँ नहीं कर देते ?"

जवाब आया-
"रिश्वत के पैसों से 
अच्छे काम नहीं किया करते! "  

कोशिशें चल रही हैं उसे रोज़गार दिलाने की 
अहसासों के अखबार में .... इश्तहार दिया है
दिमाग से भी बातचीत जारी है ..................!  

~Saumya