Friday, December 18, 2009

नसीब ...













उन्सठ साल पुरानी चप्पलें
आज फिर काम पर जा रही हैं
घिस कर हो चुकी हैं कागज़ सरीखी
पर लिहाज़ करती हैं 'पहनने वाले का' |

पिताजी ने आज तय किया है
दो रोज़ दोपहर का खाना नहीं खायेंगे
चालीस रूपए कम हैं
बिटिया को जन्मदिन पर साइकिल दिलानी है |

माँ ने आज हलवा बनाया था
सबका हिस्सा लगाया
उसके हिस्से सिर्फ सौंधी खुशबू ही आ पाई
वो फिर खुद को गिनना भूल गयी थी |

दादी को आज पेंशन मिली थी
पोते को दे दी - कपडे बनवाने को
आधे दादी की दवाई में खर्च हो गए
बाकी में जीजी की ओढनी ही आ पाई|

आज छप्पर पर सावन भी जमकर थिरका
वो बेतरतीब बस्ती फिर बेदाग़  हो गयी
मुन्ना की पतंग देखो आसमां छु रही है
वो इन्द्रधनुष कैसा फीका जान पड़ता है |


इस बस्ती में मकान कच्चे पर दिल सच्चे हुआ करते हैं
बड़े तो बड़े ,बच्चे भी 'बड़े' हुआ करते हैं
दिन की आखिरी धुप भी जब दरवाज़े पर दस्तक देती  है
उसकी खुशामदीद में 'दिए' जला करते हैं |

सच कहूं तो इन ज़मीन पर सोने वालों के सपने
बिस्तर पर करवट बदलने वालों से
जियादा खूबसूरत होते हैं
पर तमन्नाएं हैं की नसीब का लिहाज़ कर जाती हैं.......


~सौम्या

Tuesday, December 15, 2009

ख्वाहिश ...


 
आसमां में उड़ने की ख्वाहिश  नहीं हमारी ,
हमें  बगिया  में  टहलना  ज्यादा  भाता  है ,
फूलों  से   जब  हम  सजाते  हैं  इसको  ,
आसमां भी दो गज, नीचे उतर आता है |

                                                                                                       ~सौम्या

Friday, December 11, 2009

कविता.........















कविता  वो नहीं
जो  मैं  संवेगहीन  स्याही की रिक्तता  में  घोल देती हूँ
और किसी सीले हुए से  कोरे कागज़  पर  उकेर  देती  हूँ
उसका आवेग तो शब्दों के छिछले सागर तक  ही गहरा होता है,
हर आवेश में ज़माने के दस्तूरों का पहरा होता है |
कविता  तो  वो  है
जो  मैं  मन  ही  मन  बुदबुदाती  हूँ
जो रिसती  है मेरी रगों में,
मेरी  सांसों  के  तार  जोड़ती है
मुझसे  मुझको  मिलवाती  है ….
लोग  कहते  हैं  मैं  बोलती  कम  हूँ ….
कैसे  कहूँ  ये  कविता हर  पल  मुझसे  बतियाती  है|
डरती  हूँ ………….
कि जब  ये  शरीर  जलेगा ..
तो  मेरी  राख  पर
हर  अनकही  नज्म
उभर  ना  आये
परत ………….
दर   परत  ……...
दर परत ……...
और  अश्कों  का  सैलाब  इस  कदर  ना  उमड़ने  लगे
कि  जो  ना  मायूस  थे  मेरे  जाने  पर ,वो  भी  बिलखने  लगें
इक  ओर  मेरी  रूह  को  दुआएं  नसीब  हों ………..
दूजी  ओर  मेरी  राख  को  साहूकार  मिलने  लगें ……
मोहसिन  हमारी  राख  को तुम  तोलना  ज़रूर
हम  जानना   चाहेंगे   हमारे  ग़मों  का  बोझ  कितना  था ………….


 ~सौम्या